
उमड़ कर आते हैं बादल, जिनका उसको डर नहीं,
आंधी हो, तूफ़ान हो, शौर्य वो डिगता नहीं।
आती है बस छूकर ही, उस तन से 'गर हवा कही,
कांपते हैं होंसले और फैसले अमल नहीं।
आते है फिरभी मिलाने खाख में जीवन कई,
तू भी न बच पायेगा, सांस लेना तेरा मुमकिन नहीं।
लौट जा की तेरा अब वक़्त यह लगता नहीं,
जीत कर गया नहीं कोई, यह ज़मीन है वही।
और मैं हूँ वोह प्रहरी, यही धर्म मेरा अजल्सेही।
- निशिता चौधरी।
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